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अब और इंतज़ार नहीं – बोधगया विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला 29 जुलाई को

सर्वेश तिवारी (आवाज इंडिया -ब्यूरो चीफ )

सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार उस याचिका पर अंतिम सुनवाई की तारीख तय कर दी है, जो पिछले 12 सालों से लंबित थी। बोधगया के महाबोधि मंदिर पर पूर्ण बौद्ध नियंत्रण की मांग को लेकर दाखिल याचिका अब 29 जुलाई को अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध की गई है। कोर्ट ने इस असाधारण देरी पर नाराजगी जताते हुए स्पष्ट किया है—अब और कोई स्थगन नहीं! भूख हड़ताल पर बैठे भिक्षुओं की बिगड़ती सेहत और लगातार बढ़ते तनाव के बीच, यह फैसला बौद्ध समुदाय के लिए निर्णायक साबित हो सकता है।

 

1949 के बोधगया मंदिर अधिनियम को चुनौती: 12 वर्षों की कानूनी प्रतीक्षा

1949 के बोधगया मंदिर अधिनियम को चुनौती देती रिट याचिका सुप्रीम कोर्ट में 2012 में दाखिल हुई थी। याचिकाकर्ता—भंते आर्य नागार्जुन शूराई ससाई और गजेंद्र पंतावने ने मांग की थी कि महाबोधि मंदिर का प्रबंधन पूरी तरह बौद्ध समुदाय के हाथों में हो। 12 साल तक इस संवेदनशील मुद्दे की सुनवाई नहीं हुई। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को 29 जुलाई को अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध कर दिया है और दो टूक कह दिया है—कोई और स्थगन नहीं। कोर्ट ने सभी पक्षों को निर्देश दिया है कि वे समय रहते अपने हलफनामे जमा करें।

महाबोधि मंदिर का प्रबंधन विवाद: बौद्ध समुदाय की संवैधानिक अपील

महाबोधि मंदिर—यूनेस्को की विश्व धरोहर—बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र तीर्थ है, लेकिन उसका प्रबंधन बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 के तहत एक समिति के हाथों में है जिसमें बौद्ध और हिंदू दोनों ही शामिल हैं। बौद्ध संगठनों का कहना है कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 29 और 30 का उल्लंघन करता है। महाबोधि मुक्ति आंदोलन, जो 19वीं सदी से जारी है, मंदिर पर बौद्ध समुदाय के पूर्ण नियंत्रण की मांग करता आ रहा है। 2013 में कानून में संशोधन कर गैर-हिंदू जिला मजिस्ट्रेट को अध्यक्ष बनने की अनुमति मिली, लेकिन असंतोष अब भी बरकरार है।

भूख हड़ताल और न्याय की पुकार: सुप्रीम कोर्ट की निर्णायक प्रतिक्रिया

2025 में जब याचिका फिर टलती दिखी, तो अखिल भारतीय बौद्ध फोरम ने 12 फरवरी से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी। अब ये हड़ताल अपने 95 वें दिन में पहुंच चुकी है। भिक्षुओं की हालत गंभीर होती जा रही है। इसी बीच, एडवोकेट आनंद एस. जोंधले ने कोर्ट में हस्तक्षेप याचिका दाखिल की और कहा कि और देरी भिक्षुओं के जीवन के लिए ख़तरनाक साबित हो सकती है। 16 मई की सुनवाई में कोर्ट ने सरकार की निष्क्रियता पर नाराजगी जताई और स्पष्ट कर दिया कि मामला अब और लटक नहीं सकता।

बुद्ध पूर्णिमा पर तनाव: भंते विनाचार्य की हिरासत और आंदोलन की जटिलताएँ

बुद्ध पूर्णिमा के मौके पर महाबोधि परिसर में तनाव और गहराया, जब भिक्षुओं और कुछ असामाजिक तत्वों के बीच झड़प हो गई। आंदोलन की अगुआई कर रहे भंते विनाचार्य को हिरासत में लिया गया और बाद में उनकी गुमशुदगी की खबरें सामने आईं। दलित, आदिवासी, पिछड़ा व अल्पसंख्यक संगठनों ने आरोप लगाया कि मंदिर परिसर में “जय श्रीराम” जैसे नारे लगाए गए और बौद्धों के साथ मारपीट की गई। इस घटनाक्रम ने एक धार्मिक विवाद को और जटिल बना दिया है। अब निगाहें 29 जुलाई पर टिकी हैं—जब कोर्ट का फैसला मंदिर के भविष्य का रास्ता तय करेगा।

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता: कानून, विरासत और न्याय की मिसाल

बोधगया महाविहार को लेकर 12 साल तक चली लंबी कानूनी लड़ाई को सुप्रीम कोर्ट के जिन दो बड़े जजों ने 29 जुलाई की सुनवाई की एक आखरी मुहर लगाने के संकेत दिए हैं,चलिए आपको बताते हैं, जस्टिज दीपांकर दत्ता साथ ही दूसरे जस्टिस प्रसन्ना भालचंद्र वराले कौन हैं,और इनका व्यक्तित्व किस तरह का है

भारत के सुप्रीम कोर्ट में न्याय की ऊंची कुर्सी तक पहुँचना एक कठिन सफर होता है। लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं, जो न सिर्फ मेहनत से, बल्कि विरासत और योग्यता से इस मुकाम तक पहुँचते हैं। उन्हीं में से एक हैं न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता का है।

9 फरवरी 1965 को कोलकाता में जन्मे दीपांकर दत्ता का कानून से रिश्ता जन्म से ही जुड़ा था। उनके पिता सलिल कुमार दत्ता खुद भी कोलकाता हाईकोर्ट के न्यायाधीश रहे। यहीं से दीपांकर दत्ता के अंदर भी कानून और न्याय के संस्कार गहरे बसे।

1989 में उन्होंने कोलकाता यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई पूरी की और उसी साल वकालत शुरू कर दी। लगभग 16 साल तक उन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और देश के तमाम ट्राइब्यूनलों में वकालत की। इस दौरान वे पश्चिम बंगाल सरकार, भारत सरकार और कई बड़े संस्थानों के वकील रहे।

सिर्फ कोर्टरूम ही नहीं, शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान रहा। 90 के दशक में वे यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लॉ, कोलकाता में संविधान कानून के गेस्ट लेक्चरर रहे।22 जून 2006 को उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट का स्थायी जज बनाया गया। लेकिन उनकी असली पहचान बनी 28 अप्रैल 2020 को, जब वे बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए। इस अहम पद पर ढाई साल से ज़्यादा सेवा देने के बाद, 12 दिसंबर 2022 को वे भारत के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नियुक्त हुए। जस्टिज दत्ता कार्यकाल ईमानदारी, सादगी और संवैधानिक मूल्यों की मिसाल बनता जा रहा है।न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता न सिर्फ कानून के ज्ञाता हैं, बल्कि वे न्याय के उस सिद्धांत में विश्वास रखते हैं जिसमें नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सर्वोपरि होती है। सुप्रीम कोर्ट में उनकी मौजूदगी भारतीय न्याय प्रणाली को और भी मजबूत और विश्वसनीय बनाती है।

न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले: सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित न्यायाधीश

अब बात करते है। जस्टिज प्रसन्ना भालचंद्र वराले की।भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचना हर किसी का सपना होता है, लेकिन इस सपने को साकार करने वाले कुछ ही होते हैं। उन्हीं में से एक हैं न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले — एक समर्पित न्यायविद, एक बौद्ध अनुयायी और न्याय के पक्ष में खड़े होने वाले प्रखर आवाज़।

निपानी जैसे छोटे से कस्बे से निकलकर उन्होंने कानून के सबसे ऊंचे मंच तक का सफर तय किया। 25 जनवरी 2024 को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। लेकिन इससे पहले वे बॉम्बे हाईकोर्ट के जज, और फिर कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी रह चुके हैं।

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय से शिक्षा लेने वाले वराले का जीवन सामाजिक न्याय और संवैधानिक मूल्यों से प्रेरित रहा है। बौद्ध धर्म में गहरी आस्था रखने वाले न्यायमूर्ति वराले समाज के वंचित तबके की आवाज़ बनते रहे हैं।सिर्फ न्यायिक फैसलों में नहीं, बल्कि उनके दृष्टिकोण में भी समता, करुणा और तर्क की गूंज साफ सुनाई देती है। यही वजह है कि देश की एक ऐतिहासिक लड़ाई—बोधगया महाविहार के नियंत्रण को लेकर चल रही 12 साल पुरानी कानूनी लड़ाई में—अब निर्णायक मोड़ पर आ चुकी है।29 जुलाई को इस केस में सुनवाई की अंतिम तारीख तय करते हुए न्यायमूर्ति वराले ने यह संकेत दिया कि अब इस ऐतिहासिक बौद्ध स्थल की गरिमा और स्वायत्तता को लेकर सुप्रीम कोर्ट अंतिम फैसला सुनाएगा।
यह सिर्फ एक कानूनी फैसला नहीं होगा, बल्कि देश की धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत को न्याय देने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।

न्यायमूर्ति वराले की नियुक्ति न सिर्फ न्यायपालिका में दलित प्रतिनिधित्व को बल देती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि संवैधानिक मूल्यों के रास्ते चलने वाले समाज को नई दिशा दे सकते हैं।

 

 

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